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पुस्तक समीक्षा – बाल गुरू

 

कस्बाई संस्कृति, ग्रामीण मेलों व क्षेत्रीय बाजार हाटों का मनोहरी दिगदर्शन है ‘‘बाल गुरू’’

एक आत्म कथात्मक अभिव्यक्ति का सजीव चित्रण श्री सतीश शुक्ला (सेवा निवृत्त आई0पी0एस0 अधिकारी) द्वारा अपनी नई कृति ‘‘बाल गुरू’’ में किया गया है।
बाल गुरू नामक कृति का मुख्य मात्र बुस्सैन एक किशोर वय बालक है जो अपने से उम्र में छोटे एक कुशाग्र सहपाठी को मित्र बना लेता है। मुख्य पात्र की ग्रामीण परवरिश और मित्र की कस्बाई संस्कृति आपस में घुलने लगती है। इसके बाद मित्र के नन्हे मस्तिष्क में किशोर विचार प्रवेश करने लगते हैं, नतीजतन दिन प्रति दिन एक नया घटनाक्रम कथानक से जुड़ता चला जाता है।
‘‘बाल गुरू’’ ऐसी ही रोचक घटनाओं की एक श्रंखला है। जो स्कूल की शरारतों, अपरिपक्व उम्र की यौन वर्जनाओं एवं भ्रान्तियों का ऐसा दस्तावेज है जो अनेक सामाजिक व मनोवैज्ञानिक पहलुओं की ओर ध्यान आकृष्ट करता है जिनके बारे में आज भी खुल कर बात करने में परहेज किया जाता है यही दोहरी मानसिकता अन्त में व्यक्तित्व की कमजोरी बनजाती है।
स्कूली वातावरण की सजीवता के अनेक प्रसंग, कक्षा का वातावरण बुस्सैन के माध्यम से पाठकों को एक चलचित्र की भांति आकर्षित करेगा। कथानक में ‘घण्टा’ एक प्रकार की लाक्षणिक गाली है जिसके सतत प्रयोग से बुस्सैन का सामाजिक परिवेश व्यक्त होता है।
कथानक में मंगलाचरण से उपसंहार तक भाषा शैली की जो चित्रात्मकता है वह अप्रतिम है। यह पढ़ाई की प्रगति पर वातावरण और संगत का प्रभाव दर्शाता है। इसमें कस्बाई संस्कृति, सिनेमा, ग्रामीण मेलों तथा क्षेत्रीय बाजार हाट का मनोहरी दिग्दर्शन है जो पाठकों को स्वयमेव ही पुराने वक्त में खींच ले जाता है। बाल गुरू नामक यह कृति अनेक अनदेखे पहलुओं से रूबरू कराती है यह बेबाक, रोचक है जिसे पाठकों को अवश्य पढ़ना चाहिए।

लेखक परिचय
श्री सतीश शुक्ला जी की गिनती बेहद कर्तव्यनिष्ठ, जनप्रिय पुलिस अधिकारियों में होती है। श्री शुक्ला पुलिस मुख्यालय, देहरादून से पुलिस उप महानिरीक्षक पद से सेवानिवृत्त है। श्री शुक्ला बुंदेलखण्ड के झांसी के निवासी हैं।

 

 

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