देहरादून। राष्ट्र आज महान देशभक्त नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती मना रहा है। सुभाष बाबू का जीवन वृत्त समस्त राष्ट्र साधकों, राष्ट्रचिंतकों के लिए गौरव बोध कराने वाला है। उनका सतत संघर्ष पूर्ण, साहसिक जीवन प्रेरणा देना वाला है। सुभाष चंद्र बोस की पूर्ण स्वराज की अवधारणा का आशय भारतीय संस्कारों से आप्लावित राज्य था। बंगाल का शेर कहे जाने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अग्रणी स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। उनके नारों “दिल्ली चलो” और “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” से युवा वर्ग में एक नये उत्साह का प्रवाह हुआ था। पूरे देश में नेताजी के इस नारे को सुनकर राष्ट्र भक्ति की अलख जगी। जो लोग यह कहते हैं कि शांति और अहिंसा के रास्ते से भारत को आजादी मिली, उन्हें एक बार नेताजी के जीवन चरित्र का अध्ययन करना चाहिए।
लेखक शिव प्रकाश भाजपा के सह महामंत्री संगठन कहते हैं कि सुभाष बाबू का जन्म आज के दिन 1897 में ओडिशा प्रांत के कटक में हुआ था। उनके पिता जानकी नाथ बोस एक प्रख्यात वकील थे जो कालांतर में बंगाल विधान सभा के सदस्य भी रहे। सुभाष बाबू एक सच्चे राष्ट्र भक्त, समाज सुधारक एवं आदर्श राजनेता थे। उनका आर्थिक सामाजिक चिंतन हमारा सदैव मार्गदर्शन करता है। उनके इसी समर्पण के कारण लोग प्यार से उन्हें नेताजी कहकर पुकारते थे। उनके विचारों पर स्वामी विवेकानंद और रवींद्रनाथ टैगोर की अमिट छाप थी। अपनी अधूरी आत्मकथा में स्वामी विवेकानंद की अक्सर कहने वाली ऋग्वेद की उस ऋचा का वर्णन वह करते हैं। वह कहते हैं “आत्मनो मोक्षार्थम जगत हिताय” अर्थात पहले स्वतः को मोक्ष तथापि दूसरों के सुख के लिए संघर्ष, समर्पण करना चाहिए। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि मेरा नारायण दरिद्र नारायण है। इसका चरितार्थ प्रसंग सुभाष बाबू के जीवन में देखने को मिलता है। आइसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद प्रशासनिक सेवा में चयन होने के बाद भी उनको अंग्रेजों की नौकरी स्वीकार्य नहीं थी। देश के प्रति समर्पण और राष्ट्रहित में सोच की भावना में उन्होंने अंग्रेजों की नौकरी छोड़ दी। प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देने के बाद सुभाष गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर की सलाह पर चितरंजन दास की पार्टी के साथ जुड़े तथा राजनीति की शुरुआत की। वे बाल गंगाधर तिलक के पूर्ण स्वाराज्य के प्रचंड समर्थक थे।
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