टिहरी जनपद में स्थित जौनपुर के सुरकुट पर्व में स्थित है सुरकंडा देवी का मंदिर। केदार खंड में इस देवी का वर्णन ‘सुरेश्वरी‘ नाम से किया गया है।
मसूरी-चंबा मोटर मार्ग पर कद्दूखाल से पैदल लगभग दो किलोमीटर चढ़ाई चढ़कर सुरकंडा देवी मंदिर पहुंचा जा सकता है। यह पर्वत उत्तराखण्ड के शक्ति पीठों में सबसे ऊँचे स्थान पर है। क्षेत्र की इकलौती ऊंची चोटी होने के कारण यहां से चंद्रबदनी मंदिर, तुंगनाथ, चौखंबा, गौरीशंकर, नीलकंठ, दूनघाटी आदि स्थान दिखाई देते हैं।
एक पौराणिक मान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि जब हिमालय के राजा दक्ष ने कनखल में यज्ञ का आयोजन किया, तो अपने दामाद भगवान शिव को निमंत्रण नहीं भेजा। पिता की तरफ से अपने पति को निमंत्रण न दिए जाने से दक्ष की बेटी और भगवान शिव की पत्नी देवी सती नाराज हो गई। अपने पति के अपमान से आहत माता सती ने राजा दक्ष के यज्ञ में खुद के शरीर की आहूति दे दी। इससे भगवान शिव उग्र हो गए। उन्होंने माता सती का शव त्रिशूल में टांगकर आकाश भ्रमण किया। जब सम्पूर्ण ब्रह्मांड में त्राही त्राही मचने लगी तो भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिए । इस दौरान नौ स्थानों पर देवी सती के अंग धरती पर पड़े। वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए। यह वही स्थल है जहां पर सती का सिर गिरा था। इसलिए यह स्थान माता सुरकंडा देवी कहलाया।
यह भी कहा जाता है कि राजा इंद्र ने यहां मां की आराधना कर अपना खोया हुआ साम्राज्य प्राप्त किया था। इस मंदिर के गर्भगृह में तीन पाषाण प्रतिमायें महाकाली, महासरस्वती तथा महालक्ष्मी की स्थापना है। दाहिनी ओर महाकाली की अष्ठभुजा वाली मूर्ति है। मुख्य मूर्ति का शीश कटे होने के कारण इसे छिन्नमस्ता भी कहा जाता है।
सुरकंडा देवी मंदिर घने जंगलों से घिरा हुआ है। वर्तमान मंदिर का पुनः निर्माण किया गया है। वास्तविक मंदिर बहुत प्राचीन मंदिर है।
विशेष महत्व…मां सुरकंडा के दर्शनों का विशेष महत्व है। यह इकलौता सिद्धपीठ है, जहां गंगा दशहरा पर विशाल मेला लगता है और दूर-दूर से लोग मां के दर्शन करने मंदिर पहुंचते हैं। इस मौके पर मां के दर्शनों का विशेष महातम्य माना गया है। कहा जाता है कि जब राजा भागीरथ तपस्या कर गंगा को पृथ्वी पर लाए थे, तो उस समय गंगा की एक धारा यहां सुरकुट पर्वत पर भी गिरी थी। तभी से गंगा दशहरा पर मां के दर्शनों का महत्व माना गया है।
कपाट खुलने का समय: यहां मंदिर के कपाट वर्ष भर खुले रहते हैं। नवरात्रे पर मैन के दर्शनों का विशेष महत्व है।
मौसम: सर्दियों में अधिकांश समय यहां पर बर्फ पड़ी रहती है। मार्च व अप्रेल में भी मौसम ठंडा रहता है। यहां अधिकांश समय गर्म कपड़ों का प्रयोग ही करते हैं।
यात्री सुविधा: यहां यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला की सुविधा है।
ऐसे जाएं…यह मंदिर समुद्रतल से करीब तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए हवाई सुविधा के साथ-साथ रेल व सड़क मार्ग की भी सुविधा है।हवाई मार्ग: यहां से सबसे नजदीकी हवाई अड्डा जौलीग्रांट है। रेलमार्ग: यहां से सबसे नजदीक रेलवे स्टेशन हरिद्वार व देहरादून है।सड़क मार्ग: मां सुरकंडा मंदिर पहुंचने के लिए हर जगह से वाहनों की सुविधा है। देहरादून से वाया मसूरी होते हुए 73 किलोमीटर दूरी तय कर कद्दूखाल पहुंचा जाता है। यहां से दो किलोमीटर पैदल दूरी तय कर मंदिर पहुंचना पड़ता है। ऋषिकेश से वाया चंबा होते हुए 82 किमी की दूरी तय कर भी यहां पहुंचा जा सकता है।